चुरू जिले का क्षेत्र रियासत काल में बीकानेर रियासत का हिस्सा था।
इससे पहले मध्यकाल की शुरुआत में जब शाकंभरी के चौहानों की ताकत बढ़ी तो यह क्षेत्र सपादलक्ष चौहानों के राज्य के अंतर्गत आता था ।
चौहानों की एक शाखा ने अपने आपको ददरेवा, जो कि राजगढ़ तहसील के पास पड़ता है , में स्थापित किया।
ददरेवा के चौहान शासक राणा की उपाधि इस्तेमाल किया करते थे।
चौहानों की एक दूसरी शाखा मोहिलों ने छापर द्रोणपुर इलाके में खुद को स्थापित किया। वर्तमान चुरू जिले का दक्षिणी पूर्वी और दक्षिण पश्चिमी भाग इन्हीं मोहिलो के नाम से मोहिलवाटी कहलाया। आज के सुजानगढ़, सरदारशहर इन्हीं मोहिलो के कब्जे में थे।
चुरू जिले का उत्तरी और उत्तरी पूर्व हिस्सा जिसमें तारानगर और राजगढ़ आदि शामिल है, चायल चौहानों के कब्जें में रहा। इस पूरे इलाके को चायलों के प्रभुत्व के कारण चायलवाटी कहा गया।
बाद में इस इलाके को कांधल राठौड़ों ने अपने अधिकार में ले लिया। इसी वंश के ठाकुर कुशाल सिंह ने सन् 1739 में यहाँ एक मजबूत किले की स्थापना की। पुराने समय में किले किसी भी शहर/कस्बे की धुरी हुआ करते थे जिसके चारो तरफ धीरे धीरे आबादी का विकास होता था। क्योंकि किला उस नगर की आबादी को सुरक्षा प्रदान करता था और व्यापार को फलने फूलने का अवसर प्रदान करता था।
ठाकुर कुशाल सिंह कांधलोत ने चुरू में फतेहपुर शेखावाटी से पलायन किये हुए व्यापारी वर्ग (बनियों) को बसाया। इसी व्यापारी वर्ग ने आगे जाकर चूरू शहर की भौतिक प्रगति में अहम योगदान दिया और राजपूतों की सहायता से इस शहर को व्यापार का महत्वपूर्ण केंद्र बनने में सहयोग दिया। अतःवास्तविक तथ्य यह है कि ऐतिहासिक और आधुनिक चूरू दोनों राजपूतों की देन है।
अब बात आती है चुरू नाम की, इस नाम के संबंध में कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक साक्ष्य नही हैं। परंतु आजकल जो इसके बारे में राजनैतिक और जातिगत दुष्प्रयोजनों के लिए यह प्रचार किया जाता है कि चूहड़ नाम के जाट के पीछे इसका नाम पड़ा। उसके अनुसार चूहड़ नाम का आदमी जाटों के 12 छोटे गांव- ढाणियों का मुखिया था और हिसार के शाही फौजदार को लगान देता था। ऐतिहासिक साक्ष्य तो इस कहानी के कुछ भी नही परंतु अगर इस बात को मान भी लिया जाए तो ऊपर वर्णित शहर की स्थापना के पहले यहाँ संभवतः कुछ बिखरी हुई ढाणियां जरूर रही होंगी इससे इंकार नही किया जा सकता ।
परंतु जब शहर की बात की जाती है तो उसकी स्थापना के लिए जनसंख्या का बड़े पैमाने पर ग्रामीण इलाकों से उस जगह की तरफ पलायन की आवश्यकता होती है। इस पलायन के लिए उनको उस तरफ खींचने वाले किसी कारक की आवश्यकताहोती है, इनमे मुख्य होते हैं रोजगार के साधन, परिवहन सुविधाओं का विकास, पेयजल, व्यापार हेतु उचित परिस्थितियाँ,कर व्यवस्था, मंडी प्रणाली,आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा प्रणालियाँ, सिंचाई के साधनों का विकास आदि आदि। इसके बाद होता है सामाजिक आर्थिक बदलावों का सिलसिला जिसमे कला, संस्कृति,सृजनात्मकता, दर्शन आदि का क्रमिक विकास होता है। इस तरह से होती है किसी शहर की स्थापना।
अगर किसी के ढाणी बांध के उस जगह रहने से ही नगर की स्थापना हो जाती तो फिर चूहड़ा जाट ही क्यों ? जाटों के सिंध से यहां आने से पहले भी यहां मानव बस्तियां थीं, उनको भी चूरू शहर का संस्थापक कहा जाए। ढाणियां तो गंगानगर के रेगिस्तानी इलाके में भी थीं। लेकिन शहर तो तब बना जब गंगा सिंह जी ने वहां शहर के लिए ऊपर वर्णित स्थितियाँ पैदा की। सांसद महोदय और उनकी टीम के तर्क के हिसाब से तो फिर अगला नंबर उसी का होगा। सांसद महोदय को अपनी नगरीकरण की इस नई थ्योरी को विश्व के सभी विश्वविद्यालयों के कोर्स में शामिल किये जाने की आवश्यकता महसूस होती होगी।
होने को तो कोटा और बूंदी भी वहाँ के भील सरदारों के नाम है, परंतु इन्हें उन नगरों का संस्थापक नही कहा जाता न। क्योंकि इन शहरों की स्थापना हाड़ा चौहानों ने ही की इसलिए उन्हें ही इन शहरों का असली संस्थापक माना जाता है।
उदयपुर शहर के बसने से पहले वहाँ एक छोटी बस्ती थी। जो पिछोला झील है उसका निर्माण भी एक बंजारे ने करवाया था। लेकिन जब भी उदयपुर की बात होगी तो उसको बसाने का श्रेय राणा उदयसिंह को ही जाएगा क्योंकि वे ही इसके असली संस्थापक थे।
इस तर्क के आधार पर तो भारत के सभी नगरों के नाम बदलने पड़ेंगे। फिर हमे उन आदिवासियों के नाम भी ढूंढने पड़ेंगे जो कि कभी उस नगर की जमीन पर मूल रूप से जंगलों में निवास करते थे।
इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक चूरू शहर की स्थापना का श्रेय मध्यकाल के इन राजपूत वंशों को ही देना होगा। चूरू शहर ही नही इस जिले के सभी प्रमुख नगर इन्हीं विभिन्न राजपूत शाखाओं द्वारा नगरीकरण की उचित परिस्थितियां उत्पन्न कर बसाये गए हैं। निःसंदेह इसमें सहयोग समाज के सभी वर्गों और सभी जातियों का रहा है। परंतु इतिहास का इस तरह विद्रुपिकरण स्वीकार्य नही है।